`चांद का सवेरा` खो जाता हूं सोते-सोते घर को। चांद को दिखलाता हूं पानी भरे तालाबों में। लालिमा छा जाती है सवेरे से शाम होते-होते। लाल चुनरिया छा जाती है सूरज ढलते ढलते। खूब खिलखिलाती है कवि रण की आस। ® कवि रण परमार ©Ran parmar चांद का सवेरा #SunSet