फिर कब ऐसी नादानी होह फिर से वही कहानी हो जाने वो कब अब्र बने आग पिघल कर पानी हो मजनू जब जब पागल हो लैला भी दीवानी हो फिर तुम ख्वाबों में आओ मिलने में आसानी हो दुनिया की न फिक्र करें चादर हमने तानी हो सूरत अनजानी हो पर आँखें कुछ पहचानी हो लुत्फ़ सफर का आ जाये दरिया में और रवानी हो उसको मैं न लिख पाऊँ वो बस याद ज़बानी हो आग लगा ही देते हैं जिनको आग लगानी हो लहरों को क्या देखेगा जिसको कश्ती ले जानी हो सागर क्या और नदिया क्या जिसको राख बहानी हो अपनी नींदें खुद लाना जो तुमको रात बितानी हो मेरी तो बस इक ही मर्ज़ी थोड़ी सी मनमानी हो नींद बताकर आती है नींद मुझे जो आनी हो ऐसा कुछ मत करना अब जिससे मुझको हैरानी हो मज़ा तो तब है रिश्ते का तुमने भी जब ठानी हो ©Ks Vishal #sadak 365