फलती नहीं है शाख़-ए-सितम इस ज़मीन पर तारीख़ जानती है ज़माना गवाह है कुछ कोर-बातिनों की नज़र तंग ही सही ये ज़र की जंग है न ज़मीनों की जंग है ये जंग है बक़ा के उसूलों के वास्ते जो ख़ून हम ने नज़्र दिया है ज़मीन को वो ख़ून है गुलाब के फूलों के वास्ते फूटेगी सुब्ह-ए-अम्न लहू-रंग ही सही गर जंग लाज़मी है तो फिर जंग ही सही hii