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साँझ की बेला यूँ शरमाई, उतर के रजनी फिर इठलाई, तम

साँझ की बेला यूँ शरमाई,
उतर के रजनी फिर इठलाई,
तम की चादर तान जो सोई,
कि अल्प उषा नज़र न आई।

प्रकाश माँगे छोटा कोना,
स्याह रात का पार होना,
पर छाए गर मेघ क्षितिज पे,
तय हो जाए दिन का भी रोना।।

©गुस्ताख़शब्द
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