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मन्नत के धागे दरग़ाह पर बाँध आता हूँ। मैं जाति पन्थ

मन्नत के धागे दरग़ाह पर बाँध आता हूँ।
मैं जाति पन्थ की देहरी  लाँघ  जाता हूँ।
मेरी  ख़्वाहिश  इतनी सी  सब ख़ुश रहें!
मैं यही सोचके सज़दे में सर झुकाता हूँ।

आस्तिक या नास्तिक हूँ ये पचड़ा नहीं!
हिन्दू या  मुसलमान  कोई लफ़ड़ा नहीं।
अपनों की ख़ुशी और अमन के लिए ही
मैं ख़ुदा के दर पर   दुआ माँग आता हूँ।

बस भाषाओं के मसले हैं।
ना समझ सके तो उलझे हैं।
जो समझ गए वो  पीर हुए!
ना-समझ पीर में धँसले हैं। मन्नत के धागे दरग़ाह पर बाँध आता हूँ।
मैं जाति पन्थ की देहरी  लाँघ  जाता हूँ।
मेरी  ख़्वाहिश  इतनी सी  सब ख़ुश रहें!
मैं यही सोचके सज़दे में सर झुकाता हूँ।

आस्तिक या नास्तिक हूँ ये पचड़ा नहीं!
हिन्दू या  मुसलमान  कोई लफ़ड़ा नहीं।
अपनों की ख़ुशी और अमन के लिए ही
मन्नत के धागे दरग़ाह पर बाँध आता हूँ।
मैं जाति पन्थ की देहरी  लाँघ  जाता हूँ।
मेरी  ख़्वाहिश  इतनी सी  सब ख़ुश रहें!
मैं यही सोचके सज़दे में सर झुकाता हूँ।

आस्तिक या नास्तिक हूँ ये पचड़ा नहीं!
हिन्दू या  मुसलमान  कोई लफ़ड़ा नहीं।
अपनों की ख़ुशी और अमन के लिए ही
मैं ख़ुदा के दर पर   दुआ माँग आता हूँ।

बस भाषाओं के मसले हैं।
ना समझ सके तो उलझे हैं।
जो समझ गए वो  पीर हुए!
ना-समझ पीर में धँसले हैं। मन्नत के धागे दरग़ाह पर बाँध आता हूँ।
मैं जाति पन्थ की देहरी  लाँघ  जाता हूँ।
मेरी  ख़्वाहिश  इतनी सी  सब ख़ुश रहें!
मैं यही सोचके सज़दे में सर झुकाता हूँ।

आस्तिक या नास्तिक हूँ ये पचड़ा नहीं!
हिन्दू या  मुसलमान  कोई लफ़ड़ा नहीं।
अपनों की ख़ुशी और अमन के लिए ही