स्वयं पर गर्व कब किया मैंने? जब से होश संभाला, धिक्कारा खुद को मैंने बेटी होने को अभिशाप माना मैंने स्त्रीत्व को पाप माना मैंने, जब भी देखा पुरुषों को दलान पे खूल कर माखौल उड़ाते हुए, दुनियादारी का ज्ञान बघारते हुए, और स्त्रियों को घूंघट में घर सजाते हुए भीतर से कई बार विद्रोह किया दिल ने मेरे। एक सफर तय करके जब रखा दूजे में कदम मैंने पत्नी से जब मां का भार संभाला मैंने स्त्री होने का मर्म समझा तब मैंने, बेटी की मां बनकर गर्व किया मैंने, उसे हमेशा स्वयं पर गर्व करना सिखाया मैंने, और स्वयं को भी स्त्री पुरुष से परे माना मैंने; सीखने सीखाने में दिल को रमाया मैंने, झूठी दीवारों को पार कर कई कदम बढ़ाया मैंने, अपने अस्तित्व को निखार कर गर्व किया मैंने। © अनुपम मिश्र #गर्व #newplace