अपने-पराये सूख गए दरख्तों के हरे पत्ते, स्नेहिल दरिया भी सूख रहा है होकर गुजरे जिस राह से अब वो पीछे छूट रहा है कभी छाव थे उन्हीं राहों पे अब अपने ही तरु को काट रहे हैं कभी बरखा, कभी धूप, कभी ठंडी हवाओ के झोंके नहीं हसरत है कुछ भी पाने की, खुस हू अपना सब कुछ खोके सूख गए दरख्तों के हरे पत्ते, स्नेहिल दरिया भी सूख रहा है होकर गुजरे जिस राह से अब वो पीछे छूट रहा है सम्भाल के रखा था पत्थरबाजों के शहर में अपने ख्वाब को हुए ना जब अपने मेरे अब ये ख्वाब भी टूट रहा हैं लिखे और क्या शब्दों का संग अब मेरी कलम से भी छूट रहा हैं मुझे भी अब तलाश रहती हैं खुद की जाने अब वो कहाँ हैं मुझे तो पता ही नहीं था कि मुझे कोई अपना लूट रहा हैं सूख गए दरख्तों के हरे पत्ते, स्नेहिल दरिया भी सूख रहा है होकर गुजरे जिन राहों से #mypoems #myideas #myqoutes #mystories