छलकती आँखें देखो बिन मौसम की बरसात किया करती है, बेचारगी के आँसू से अपना दिल धुल कर साफ़ किया करती है। उसपर ज़माना टूटा, और लदा मर्यादाओं का असहनीय भार, सूखे मरे जो सपने थें, तन्हाई में भिगो कर जगाया करती है। पूछती आईने से,क्यों छितरा मन किसी को दिखा नहीं सकतें, जो तन अपना होकर भी अपना नहीं, वो तन छुपाया करती है। अहद-ए-शकेबाई थमती नहीं, अश्कों से ही जी हल्का करती है, कमज़ोरी का प्रमाण नहीं, सहनशक्ति की व्यथा बताया करती है। घर के दर-ओ-दरीचे पहचान माँगते, उसकी आवाज़ से अनभिज्ञ, रातों को दबी दबी आवाज़ में इन्हीं से मेल जोल बढ़ाया करती है। कभी पिघलकर देखना, नारी की नज़र में एक दफ़ा उतरकर देखना, आँसू से भी उसकी कतराते जब हो, वो ख़ुद से ही दूरी बढ़ाया करती है। ♥️ Challenge-937 #collabwithकोराकाग़ज़ ♥️ इस पोस्ट को हाईलाइट करना न भूलें! 😊 ♥️ दो विजेता होंगे और दोनों विजेताओं की रचनाओं को रोज़ बुके (Rose Bouquet) उपहार स्वरूप दिया जाएगा। ♥️ रचना लिखने के बाद इस पोस्ट पर Done काॅमेंट करें।