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बिस्तर पर पड़े कंबल की तरह "ज़ब रिश्ते सिकुड़ने लगें"

बिस्तर पर पड़े कंबल की तरह "ज़ब रिश्ते सिकुड़ने लगें"।
सपनों में क्या और हकीकत में क्या,ये इतना झूठ क्यों बनने लगें।।

सुनो तुम कहो झूठ या सच,ज़ब चाहें,जितना चाहें,उतना कह दो।
हैं जो रिश्ता या था जो रिश्ता,पर क्यों था ये रिश्ता,अब कह भी दो।।
 
रुको रुको अब तुम ये क्या सोचने लगें हों,क्या कुछ बीत रही हैं।
ज़ब बीतती हैं,तब समझ में आती हैं,क्या अब तुम पर भी बीत रही हैं।।

हाँ अब समझ आ रही हैं,सुनो अब तुम ये कैसा वक़्त बिता ने लगें हों।
दूजो पर हसने वालो,क्या अब तुम खुद पर भी हसने लगें हों।।

हाँ हसीं आती हैं,अब खुद पर भी,खमोश पड़े इन लबों पर भी।
दिमागी जोर की बातों के आगे,खुद की भी न चली कैसा हैं ये दिल भी।। शुभरात्रि लेखकों।😊

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बिस्तर पर पड़े कंबल की तरह "ज़ब रिश्ते सिकुड़ने लगें"।
सपनों में क्या और हकीकत में क्या,ये इतना झूठ क्यों बनने लगें।।

सुनो तुम कहो झूठ या सच,ज़ब चाहें,जितना चाहें,उतना कह दो।
हैं जो रिश्ता या था जो रिश्ता,पर क्यों था ये रिश्ता,अब कह भी दो।।
 
रुको रुको अब तुम ये क्या सोचने लगें हों,क्या कुछ बीत रही हैं।
ज़ब बीतती हैं,तब समझ में आती हैं,क्या अब तुम पर भी बीत रही हैं।।

हाँ अब समझ आ रही हैं,सुनो अब तुम ये कैसा वक़्त बिता ने लगें हों।
दूजो पर हसने वालो,क्या अब तुम खुद पर भी हसने लगें हों।।

हाँ हसीं आती हैं,अब खुद पर भी,खमोश पड़े इन लबों पर भी।
दिमागी जोर की बातों के आगे,खुद की भी न चली कैसा हैं ये दिल भी।। शुभरात्रि लेखकों।😊

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