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चाहे जितनी आग झोंक दो, हवन कुण्ड की आहुतियों में।

चाहे जितनी आग झोंक दो, हवन कुण्ड की आहुतियों में।
पर मानवता की समिधाएं, कभी न स्वाहा हो पायेंगी।

जहां राम की मर्यादा ले, आदर्शों का सूरज उगता।
कृष्ण सुदामा की मैत्री का, पावन दीपक निस दिन जलता।
उस धरती के हम रक्षक हैं, नेक कार्य में डटे रहेंगे।
दुष्प्रवृत्ति की जड़ें मिटाकर, द्वेष दंभ का त्याग करेंगे।
चाहे जितनी चिता जला लो, धर्मवाद के चौराहों पर।
पर समरसता की प्रतिभाएं, कभी न स्वाहा हो पायेंगी।
चाहे------------------------------------------(१)

जहां विषैले सर्पों को भी , दूध पिलाने का प्रचलन है।
नर भक्षों के खातिर हर जन, कर देता अर्पित जीवन है। 
उस उपवन के हम पौधे हैं, छावों का सुख सबको देंगे।
वायु प्रदूषित शोषित करके, शुद्ध सुगन्धों सम महकेंगे।
चाहे जितना गरल घोल दो , परिवारों के संबंधों में।
पर सुचिता की नेक कथाएं ,कभी न स्वाहा हो पायेंगी।
चाहे-------------------------------------------(२)

जहां श्रमिक नित चट्टानों से, जमकर युद्ध किया करते हैं।
चीर हृदय बंजर खेती का  ,  हलधर  बंधु जिया करते हैैं। 
उस कुटिया के हम साधक हैं , कर्म भूमि को नमन करेंगे।
मेहनतकश कंधों के आगे ,  नतमस्तक हम सदा रहेंगे। 
चाहे जितने बम्ब फोड़ दो, निर्धनता के केन्द्र बिन्दु पर।
पर सज्जनता की संज्ञाएं  ,  कभी न स्वाहा हो पायेंगी।
चाहे------------------------------------------(३)
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©करन सिंह परिहार
  #चाहे जितनी आग झोंक दो

#चाहे जितनी आग झोंक दो #कविता

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