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हाय जवानी।। हूँ यौवन के दहलीज़ खड़ा, अपने ही कर्मों

हाय जवानी।।

हूँ यौवन के दहलीज़ खड़ा,
अपने ही कर्मों से खीझ पड़ा।

रवानी रहीं वो खूं की नहीं,
कहानी रही वो जुनूँ की नहीं।

बुद्धि भी रही अब तीक्ष्ण नहीं,
आवेशित है पर है उद्विग्न नहीं।

मेहबूब भी है महबूबा भी रही,
अवसादपूरीत लघुता ही रही।

सर्पदंश सी वाणी थी मुखरित,
थी भावविहीन स्वालम्ब रहित।

जननी की छाती भी कोस रही,
क्यूँ सर्प आस्तीन में पोस रही।

दिशा नहीं बस उहापोह है,
छली व स्वार्थी प्रेम मोह है।

दिकभ्रमित खड़ा तलवार लिए,
युद्धक, पर बिन सरोकार लिए।

आंदोलित तो है पर दिशाहीन,
भाव भी कुंठित और प्रिशाहीन।

उद्गार तो है पर उद्वेलन तो नहीं,
मिलन तो है पर सम्मेलन तो नहीं।

बोलो ये देश भी किसकी पुकार करे,
सोये पूतों के बल क्या हुंकार भरे।

गर्जन क्या जो कानों तक भी ना पहुंचे,
निजमन में हो पर कोई कभी भी ना बूझे।

देखो हैं टूट रहे अब अश्रुबाँध,
जाएं न कहीं मर्यादा ये लांघ।

कब माता देती है शाप किसे,
सुनाए भी तो अपना संताप किसे।

निरन्तर समयचक्र बलवान बड़ा है,
तू जो यौवन को लिए मसान खड़ा है।

कुछ जुगत लगा और विचार कर,
कुंठित तंद्रा की मंद तू धार कर।

कुछ कर ऐसा की माता भी गर्व करे।
पुनर्जीवित तुझको करने को गर्भ धरे।

©रजनीश "स्वछंद" हाय जवानी।।

हूँ यौवन के दहलीज़ खड़ा,
अपने ही कर्मों से खीझ पड़ा।

रवानी रहीं वो खूं की नहीं,
कहानी रही वो जुनूँ की नहीं।
हाय जवानी।।

हूँ यौवन के दहलीज़ खड़ा,
अपने ही कर्मों से खीझ पड़ा।

रवानी रहीं वो खूं की नहीं,
कहानी रही वो जुनूँ की नहीं।

बुद्धि भी रही अब तीक्ष्ण नहीं,
आवेशित है पर है उद्विग्न नहीं।

मेहबूब भी है महबूबा भी रही,
अवसादपूरीत लघुता ही रही।

सर्पदंश सी वाणी थी मुखरित,
थी भावविहीन स्वालम्ब रहित।

जननी की छाती भी कोस रही,
क्यूँ सर्प आस्तीन में पोस रही।

दिशा नहीं बस उहापोह है,
छली व स्वार्थी प्रेम मोह है।

दिकभ्रमित खड़ा तलवार लिए,
युद्धक, पर बिन सरोकार लिए।

आंदोलित तो है पर दिशाहीन,
भाव भी कुंठित और प्रिशाहीन।

उद्गार तो है पर उद्वेलन तो नहीं,
मिलन तो है पर सम्मेलन तो नहीं।

बोलो ये देश भी किसकी पुकार करे,
सोये पूतों के बल क्या हुंकार भरे।

गर्जन क्या जो कानों तक भी ना पहुंचे,
निजमन में हो पर कोई कभी भी ना बूझे।

देखो हैं टूट रहे अब अश्रुबाँध,
जाएं न कहीं मर्यादा ये लांघ।

कब माता देती है शाप किसे,
सुनाए भी तो अपना संताप किसे।

निरन्तर समयचक्र बलवान बड़ा है,
तू जो यौवन को लिए मसान खड़ा है।

कुछ जुगत लगा और विचार कर,
कुंठित तंद्रा की मंद तू धार कर।

कुछ कर ऐसा की माता भी गर्व करे।
पुनर्जीवित तुझको करने को गर्भ धरे।

©रजनीश "स्वछंद" हाय जवानी।।

हूँ यौवन के दहलीज़ खड़ा,
अपने ही कर्मों से खीझ पड़ा।

रवानी रहीं वो खूं की नहीं,
कहानी रही वो जुनूँ की नहीं।