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मन नित्य नया चाहता है। जो वस्तु प्राप्त नहीं होती

मन नित्य नया चाहता है।
जो वस्तु प्राप्त नहीं होती
उसके लिए भटकता है।प्राप्त होते ही
उसके प्रति उदासीन भी शीघ्र ही हो जाता है
और फिर नई वस्तु के प्रति दौड़ने लगता है।
मन की कामना ही ईष्र्या और अहंकार का मूल है।
इसी कारण व्यक्ति मर्यादाओं का लंघन करता है।
येन-केन-प्रकारेण प्राप्ति ही उसका लक्ष्य रहता है।
संग्रहण और फिर उसकी सुरक्षा में लगा ही रहता है।
भय की उत्पत्ति का भी यही कारण बनता है। किसी की समझ में न आए उसी का नाम माया है। जीवन का आधार कामना है और अत्यन्त तीव्र कामना को ही तृषा या तृष्णा कहते हैं। व्यक्ति जैसे-जैसे अपनी शक्तियों का संग्रहण करता है, उसकी तृष्णा बढ़ती जाती है। चूंकि व्यक्ति उम्र भर बाहरी संसार में ही खोया रहता है, अत: उसकी तृष्णा भी बाहरी विषयों की ही होती है। उसके मन में शक्ति-संग्रहण का जो वातावरण बना रहता है, उसी के कारण तृष्णा का भाव बढ़ता है। धन, वस्तुएं, मकान, जमीन आदि में बढ़ोतरी करना ही उसे शक्ति-सम्पन्नता लगती है।

इस तृष्णा का मूल हेतु भी माया रूप अविद्या है, अज्ञान है। इस अज्ञान के कारण ही मन की चंचलता बनी रहती है। जीव को अपने अस्तित्व का ज्ञान ही नहीं होने देती। जितनी चंचलता होती है, उतनी ही मन की अस्थिरता बढ़ती जाती है। मन में तनावों के नित नए स्पन्दन पैदा होते जाते हैं। जीवन में एक बड़ा व्यवधान चंचलता के कारण बना रहता है। चंचलता ही बुद्धि को भ्रमित रखती है। सुख की तलाश, संकल्प-विकल्प का चक्रव्यूह बना रहता है। शरीर, मन और भाव, व्यक्ति के तीनों धरातल ही तनावग्रस्त हो जाते हैं।

विचारों का क्रम टूटने का नाम ही नहीं लेता। व्यक्ति क्षमता से अधिक अर्जित करने में लगा रहता है। एक ओर वह प्रिय वस्तु की प्राप्ति के लिए भागता है, वहीं दूसरी ओर अप्रिय से भागने का यत्न करता रहता है। जीवन में एक द्वंद्व रह जाता है। अनेक भय से व्यक्ति त्रस्त होने लगता है। कई प्रकार के रोग व्यक्ति में परिलक्षित होने लगते हैं। परिग्रह जीवन में अभिशाप बनता जान पड़ता है।
#shweta mishra
#komal sharma
#priya shekhawat
मन नित्य नया चाहता है।
जो वस्तु प्राप्त नहीं होती
उसके लिए भटकता है।प्राप्त होते ही
उसके प्रति उदासीन भी शीघ्र ही हो जाता है
और फिर नई वस्तु के प्रति दौड़ने लगता है।
मन की कामना ही ईष्र्या और अहंकार का मूल है।
इसी कारण व्यक्ति मर्यादाओं का लंघन करता है।
येन-केन-प्रकारेण प्राप्ति ही उसका लक्ष्य रहता है।
संग्रहण और फिर उसकी सुरक्षा में लगा ही रहता है।
भय की उत्पत्ति का भी यही कारण बनता है। किसी की समझ में न आए उसी का नाम माया है। जीवन का आधार कामना है और अत्यन्त तीव्र कामना को ही तृषा या तृष्णा कहते हैं। व्यक्ति जैसे-जैसे अपनी शक्तियों का संग्रहण करता है, उसकी तृष्णा बढ़ती जाती है। चूंकि व्यक्ति उम्र भर बाहरी संसार में ही खोया रहता है, अत: उसकी तृष्णा भी बाहरी विषयों की ही होती है। उसके मन में शक्ति-संग्रहण का जो वातावरण बना रहता है, उसी के कारण तृष्णा का भाव बढ़ता है। धन, वस्तुएं, मकान, जमीन आदि में बढ़ोतरी करना ही उसे शक्ति-सम्पन्नता लगती है।

इस तृष्णा का मूल हेतु भी माया रूप अविद्या है, अज्ञान है। इस अज्ञान के कारण ही मन की चंचलता बनी रहती है। जीव को अपने अस्तित्व का ज्ञान ही नहीं होने देती। जितनी चंचलता होती है, उतनी ही मन की अस्थिरता बढ़ती जाती है। मन में तनावों के नित नए स्पन्दन पैदा होते जाते हैं। जीवन में एक बड़ा व्यवधान चंचलता के कारण बना रहता है। चंचलता ही बुद्धि को भ्रमित रखती है। सुख की तलाश, संकल्प-विकल्प का चक्रव्यूह बना रहता है। शरीर, मन और भाव, व्यक्ति के तीनों धरातल ही तनावग्रस्त हो जाते हैं।

विचारों का क्रम टूटने का नाम ही नहीं लेता। व्यक्ति क्षमता से अधिक अर्जित करने में लगा रहता है। एक ओर वह प्रिय वस्तु की प्राप्ति के लिए भागता है, वहीं दूसरी ओर अप्रिय से भागने का यत्न करता रहता है। जीवन में एक द्वंद्व रह जाता है। अनेक भय से व्यक्ति त्रस्त होने लगता है। कई प्रकार के रोग व्यक्ति में परिलक्षित होने लगते हैं। परिग्रह जीवन में अभिशाप बनता जान पड़ता है।
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