एक ग़ज़ल उस पे... एक ग़ज़ल उस पे लिखूं दिल का तकाज़ा है बहुत; इन दिनों खुद से बिछड़ जाने का मौका है बहुत; रात हो दिन हो गफलत हो कि बेदर्दी हो; उसको देखा तो नहीं है, उसे सोचा है बहुत; तश्नगी के भी मुक़ामात हैं ,क्या क्या यानी; कभी दरिया नहीं काफी, कभी क़तरा है बहुत; मेरे हाथों की लकीरों के इज़ाफ़े हैं गवाह; मैने पत्थर की तरह खुद को तराशा है बहुत। ::::::::::MADMAN:::::::::: ©Ankur Mishra एक ग़ज़ल उस पे... एक ग़ज़ल उस पे लिखूं दिल का तकाज़ा है बहुत; इन दिनों खुद से बिछड़ जाने का मौका है बहुत; रात हो दिन हो गफलत हो कि बेदर्दी हो;