वो डूंगरिया के लडालूम झाडक्या के बोर हमारी इस जिह्वा को देते थे सुकून,बहोत अब बस जेहन में वो यादे ही रह गई है, आज आधुनिकता में खो गये है,वो बोर जंगल के जंगल कटे,खोदी गई ज़मीने फिर कैसे पाएं,स्वादिष्ट झाडक्या के बोर? फीके है,जिसके आगे आज के 56 भोग हमारी अति महत्वाकांक्षा ने छीने वो बोर अब न मिलती है,हमे डूंगरो पर वो भोर जहां यूँही मिल जाते थे झाडक्या के बोर अब तो हृदय में रह गई है,चोट ही चोट खो गई है,आधुनिकता में हमारी सोच हर शख्स की प्राकृतिकता लूट गई है, लूट गया है,सादगी का रमणीय मोर अब रह गया है,बस दिखावे का सोर हर शख्स खुद की खुदी का हुआ चोर लुप्त से हो गये है,इंटरनेट पर रह गये है, शूलों बीच लहराते हुए झाडक्या के बोर गर हम न जागे,प्रकृति को न माना सिरमौर फिर एकदिन हमारा भी न रहेगा कोई सोर दिल से विजय ©Vijay Kumar उपनाम-"साखी" झाडक्या के बोर