•| डरावना किस्सा |• \जब "उसने" दरवाज़ा बंद होने नहीं दिया।/ (यह किस्सा सच्ची घटना पर आधारित है। कमज़ोर दिल वाले दिल को मज़बूत कर के पढ़ें।) "जब उस ने दरवाज़ा बंद होने नहीं दिया।" ऐसे तो मेरे पास लिखने के लिए बहुत सारी बी डरावनी कहानियां हैं क्योंकि मेरा स्कूल ही 150 साल पुराना है जो कि उससे भी पहले क्वीन विक्टोरिया का महल हुआ करता था। आप गूगल पर भी दिल्ली की सबसे डरावनी जगहों को सर्च करेंगे तो 10 में से 3 - 4 जगह तो सिविल लाइंस और कश्मीरी गेट के आसपास की मिल जायेंगी। जो मेरे घर और स्कूल दोनों को जोड़ता है। हमारी क्लास का तो फेवरेट पास टाइम हुआ करता था "भूत को बातें"। हम सब क्लास की लाइट बंद करके ग्रुप बना के एक दूसरे को स्टोरी सुनाते थे और सबसे ज़्यादा मज़ा हॉस्टल वाली लड़कियों की कहानी सुनने में आता था क्योंकि वो स्कूल से रिलेटेड ही कहानियां सुनाती थीं। पर जैसा कि अपने पिछले चैलेंज में मैं स्कूल का एक किस्सा सुना चुकी हूं तो अब स्कूल को कम पब्लिसिटी देते हुए मैं ये बात अपने घर की बताउंगी। मैं पुरानी दिल्ली की एक मस्त पुरानी हवेलीनुमा घर में रहती हूं जो कम से कम 80-90 साल पुरानी है। खुले कमरे, बड़ा सा छज्जा, और हर फ्लोर से दिखता बड़ा सा आसमान। स्कूल की बात से आप समझ गए होंगे कि मुझे बचपन से ही भूत के किस्से कहानियों का शौक रहा है। तो एक शनिवार रात की बात है, उस समय मैं करीब 10 -12 साल की थी। हर वीकेंड की तरह उस रात भी मैं टीवी पर एक हॉरर शो देख रही थी। अच्छा एक बात है, आप हॉरर शो या फ़िल्म जितने मज़े में देखते है ना, बाद में उतना ही ज़्यादा आपको डर भी लगता है। तो समय कुछ 11:45 - 12:00 के बीच का होगा क्योंकि अमूमन इसी समय उस शो में भूत सबसे ज़्यादा ताकतवर हुआ करता था और कोई ना कोई पंडित या पादरी उसको भगाने की कोशिश कर रहा होता था। और जो धुन उस समय उस प्रक्रिया में बजती थीं उससे मुझे डर लगता था। मेरा आधा ध्यान टीवी और आधा ध्यान दरवाज़े से बाहर था जैसे कि अंधेरे में अभी वहां कोई खड़ा दिखाई देगा। मैंने सोचा मुझे दरवाज़ा बंद कर देना चाहिए। घर में मेरे अलावा सब सो चुके थे तो मैं हिम्मत कर के उठी और थोड़ा दूर से ही दरवाज़े पर हाथ मारा ताकि वो बंद हो जाए। लेकिन नहीं दरवाज़ा तो हिला भी नहीं उल्टा मुझे लगा की किसी ने दरवाज़ा पकड़ रखा है। मैं और डर गई और वापस बिस्तर में घुस गई। फिर मैंने सोचा नहीं दरवाज़ा तो बंद करना ही है तो मैं दुबारा उठी और फिर हाथ मारा। अब की बार भी पहले की तरह वो हिला भी नहीं और इतना सख़्त जैसे किसी ने रोक रखा हो। अब मैं बहुत ज़्यादा डर गई थीं। मैं रजाई में घुस कर बैठ गई और टीवी का चैनल भी बदल दिया। अब मुझे समझ नहीं आया क्या करूं। चुपचाप सो जाऊं या मम्मी पापा को उठा कर बताऊं। मम्मी मुझे हमेशा ये सब देखने के लिए मना करती थीं तो उनको उठाती तो डांट पड़ती। इसलिए मैंने आपकी बार लाइट खोल के देखने का निर्णय लिया। मैं बिस्तर से उठी और स्विच बोर्ड की ओर गई जो दरवाज़े के ठीक बगल में ही था। लाइट खोलते ही मैंने जो देखा उससे तो मेरे होश ही उड़ गए। मैंने देखा कि दरवाज़े को बीच में जो स्टॉपर लगा होता है, वो दरवाज़े में अटका हुआ था जिस कारण दरवाज़ा बन्द नहीं हो रहा था। (पुरानी दिल्ली के अधिकांश घर पुराने आर्किटेक्चर से बने है, जिसमें से एक है कि दरवाजों को रोकने वाला स्टॉपर नीचे ना होकर ठीक बीचोबीच होता है, जिस कारण वो अलग से दिखता नहीं है।) अब स्टॉपर लगा देख मेरी जान में जान आई। मैंने स्टॉपर हटाया, दरवाज़ा बन्द किया और वापस बिस्तर पर आकर अपना वो ही चैनल लगा के टीवी वाले भूत को अपने वहम की तरह नष्ट होते देखा।।