वो कोना मेरे छत का... वो चांदनी रात के आंसू... वो कसक दिल की... की तुम फिर हाथ से फिसल गये। और आज मैं वही मैं हूँ... और तुम वही तुम। कोना वहीँ परा हुआ अकेले - गुमसुम पर न वो आंसू है और न गम तेरे जाने का फ़िर से हम हैं... बस आमने-सामने। मकसद अब कुछ कर जाने का-पैसा कमाने का कुछ न बदला मैंने अब तक पर मैं सच मे बदल गई। इस दौड़ में बस...खुद ही...संभल गई। Life going on...