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नदी सदा मौजुद थी फिर भी.. बारिश में भीग जाने को तर

नदी सदा मौजुद थी फिर भी..
बारिश में भीग जाने को तरसता रहा तन..
उड़ान भी बेमोल लगते मोह के परिंदों को, 
 आसमान से ज्यादा जब रास आये बंधन..
जमीं भी अपनी थाल भी अपनी फिर भी.. 
तमाम आराम की चाह में फँसा क्यूँ मन..
जो पाया,खोया सब यही छुट जाना, 
परम सत्य की ओर तब भी कहाँ समर्पण..
 प्रेम पथ ही सत्य,दया ही देव स्वभाव,
करें प्रयास व्यर्थ के दंभ व लोभ से, 
क्षय न हो यह अमूल्य मानव जीवन...

©Chanchal's poetry
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