इक ख्याल आ कर ठहरा है शब्द धीमी आंच पर रख छोड़े हैं मिसरे मसालों संग सजा रखे हैं नज़्म पकने में समय लगेगा स्याही के सॉस से स्वाद बढ़े शायद सवालों के आटे को गूंथ रखा है कब से बैठा हुआ हूँ मैं जानम सादे काग़ज़ पे लिख के नाम तेरा ये जो मुस्कान सा तैर रहा हूँ अब वही मुकम्मल नज़्म है मेरी एक और #तज़मीन जो बीवी से करे प्यार वो नज़्मों से करे इकरार गुलज़ार साब की इन लाइनों पर आधारित है ये - नज़्म उलझी हुई है सीने में मिसरे अटके हुए हैं होठों पर उड़ते-फिरते हैं तितलियों की तरह लफ़्ज़ काग़ज़ पे बैठते ही नहीं