आज में आज में राख के उस ढेर पर जा बैठी जहाँ से पैरों को धसते बचाना नामुमकिन था और फिर से एक बार फस गई वही जहाँ पुरानी कुछ यादे और जख्मो को दफनाया था और फिर अब मोम बन पिघल रही हूँ बरसो से सख्तियत जमा की थी बड़ी मुद्दतो से अब आज फिर पिघलने लगी है और उस ढेर पर बैठी में फिर उन दफ्न ख्यालो और जख्मो संग तपने लगी हूँ। बस एक ख्याल है मन में इसके पिघल जाने पर जल्द सीमेंट लू इसे और दफना दू कही जहाँ कोई इसे छू न पाए दिल के किसी एकांत कोने में। कविता जयेश पनोत Written on 24 may2020 At10:30pm आज मै