क्यूँ छीना बचपन! बचपन से छिनता रहा अपना बचपन हर याद के पन्नों में कौंधता वो अपना बचपन सतरंगी कैनवस की काली स्याह रातों में घुटता रहा बचपन टिमटिमाते तारों की राह तकते रह गए नयन तरु के सख्त साखों को बनाया था अपना सिरहाना सुर्ख तन पर रहा बरसों सूरज का आशियाना आज भी याद कर उन पलों को सिसक जाता हूँ ना चाहते हुए भी बचपन को कोस जाता हूँ समंदर के नमकीन लहरों पर सजल होने को कभी आतुर था बचपन मरुधर की शुष्क लहरों पर तपा था वो तन मृग- मरीचिका की तरह भ्रमित थे अश्रुरहित नयन शुष्क माचिस की तीली सा जला था वो अपना बचपन नेपथ्य के धूमिल आईने में आज वो रूप देख चौंक जाता हूँ ना चाहते हुए भी बचपन को कोस जाता हूँ हताश आँखों में कल्पित भी न हो पाया एक क्षण भ्रमता-भ्रमाता रहा बिन गुंजन वो अपना बचपन मुट्ठी भर सुनहरी रेतों की तरह फिसलता गया वो अपना बचपन और शून्य में तलाशते रह गए हम अपना नादान बचपन आज सोचता हूँ ऐ नादान बचपन! तेरी धमनियों में वेग-वर्धित रक्त संचार हो और सपने में भी किसी का बचपन ना लाचार हो कुछ इस तरह हर जीवन का आगाज हो कि हर सख़्श को अपने बचपन पे नाज हो I # क्यूं छीना बचपन!