आसमां सा मुझपे जो छाया हुआ है, वो भी ख़ाख-ए-इश्क़ में ज़ाया हुआ है । मैं ही फ़कत इश्क़ में टूटा नहीं हूँ, ज़र्रा-ज़र्रा वो भी तो बिखरा हुआ है मैं भी क्यों रोना करूँ बर्बादियों का, वो भी तो मेरी तरह रुसवा हुआ है । मेरी तरह मंज़िलों से बेखबर है, राह-ए-वफ़ा वो भी तो खोया हुआ है । मैं अगर बदमस्त हूँ उसकी तलब में, वो भी मुझको मुफ़लिसी में ढूंढता है । कैसे मैं उस से करूँ कोई शिकायत, मेरा मेहरम हू-ब-हू मेरी तरह है । - कनव Mehram