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वो लफ्ज़ लफ्ज़ में मेरे बसता है जिसने कभी पढ़ा ही नही

वो लफ्ज़ लफ्ज़ में मेरे बसता है
जिसने कभी पढ़ा ही नहीं मुझे...! वो साँस-साँस सा मुझमें ही धड़कता रहता है, 
जिसने शामिल भी न किया  ज़िंदगी में कभी।।

पल, दिन, महीने, साल और तारीख बढ़ते रहे,
यूँ तन्हाइयों पर जैसे कितने ही कर्ज़ चढ़ते रहे,
वो हँसी- हँसी सा मुझमें ही  महकता रहता है,
जिसने शामिल भी न किया  ज़िंदगी में कभी।।
वो लफ्ज़ लफ्ज़ में मेरे बसता है
जिसने कभी पढ़ा ही नहीं मुझे...! वो साँस-साँस सा मुझमें ही धड़कता रहता है, 
जिसने शामिल भी न किया  ज़िंदगी में कभी।।

पल, दिन, महीने, साल और तारीख बढ़ते रहे,
यूँ तन्हाइयों पर जैसे कितने ही कर्ज़ चढ़ते रहे,
वो हँसी- हँसी सा मुझमें ही  महकता रहता है,
जिसने शामिल भी न किया  ज़िंदगी में कभी।।