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लिखती हूं, मगर क्या ये मुझे खुद को मालूम नहीं, बस

लिखती हूं,
मगर क्या ये मुझे खुद को मालूम नहीं,
बस लिखती हूं तमाम वो सारी बातें जो दिल में होती हैं,
तो कभी कुछ बातें ऐसी भी जो कभी कह न पाई, 
कभी लिखती हूं दर्द तो कभी प्यार भी लिखती हूं,
बस मालूम नहीं मुझ खुद को कि मैं कब क्या क्या लिखती हूं..
मेरे लिखे लफ्जों में बात इश्क की होगी तो दर्द की भी,
कभी तेज चुभती धूप की तो ठंडी छांव की भी,
हर वो भी बात होगी, जो कह न पाई किसी से,
और उन बातों में वो बात भी होगी जो देखा या सहा ना गया हो मुझसे..
बातें सारी तमाम होगी,
बस जरूरत है तो,
उसे पढ़ कर समझ पाने वाले की..

©Nandita Singh
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