#OpenPoetry दिल हो मेहबूब की आेर, ज़ुबानी इज़हार काफी नहीं मोहब्बत में जेसे किब्ला रुख लाज़िम है, तकबीर-ए-तहरीम काफी नहीं इबादत में सेवा करता रहा पूरी कोम की, मगर छोड़ दिया मां बाप को कम अक्ल भूल गया जन्नत तो है छुपी, इन ही की खिदमत में भुला कर अर्श वाले को, फर्श वालो से करके सवाल नादां करता है मोहताज को शरीक, बेनियाज़ की वहदत में थोडा इंतेज़ार और कर लेते तो उसे अपना बना ही लेते हम तो जीती बाज़ी हार गए, जरासी उज्लत में बख्श देना चंद आयात कबर पर हमारी, अपनी ही खातिर केसे बेहलाओंगे जी अपना हमारे बगैर, तनहा जन्नत में करते हो वफा की उम्मीद, करके रुसवा सारे जहां में कोई कसर तो छोड़ी होती तुम ने, लगाई तोहम्मत में करते तो हो तुम साथ निभाने के वादे हज़ार लेकिन झूट दिखता है शफ़ाफ हमें , तेरी उल्फत में अभी और शिकवे रेहते है, मगर बयां करने नहीं 'उमर' चार रोज़ की जिंदगानी है, गुज़ारनी नहीं शिकायत में #शिकायत_में की अोर - की तरफ कीब्ला रुख - जिस सिमत रुख करके नमाज़ अदा करते है तकबीर-ए-तहरिम - नमाज़ की निय्यत बांधते वकत हाथ उठा कर कही जाने वाली तकबीर (अल्लाह-हू-अकबर) अर्श वाले को - अल्लाह को फर्श वाले - इंसान सवाल करना - मांगना