पुरुष करे बगावत समाज से तो आजाद ख्याल हैं... इससे शायद घर टूट सकते है... औरत खिलाफत करने की सोचे भी तो समाज टूटने लगता है। फिर भी औरत को पुरुष की जिम्मेदारी क्यों कहा जाता है? एक लाइन में कम से कम 50 से ज्यादा औरतों की जिंदगी देख रही हूं, सुन रही हूं... जिनके परिवार से सिर्फ़ उनकी वजह से टिके हुए हैं, बने हुए हैं, उनकी सहनशीलता से चल रहे हैं। और, ये समाज झूठा गुमान दिखाता है कि स्त्री पुरुष की जिम्मेदारी है। औरत जी रही है, दायित्व निभा रही है... घर भी... और बाहर भी... बच्चों से भी... माता-पिता से भी... रिश्तेदारों से रिश्तेदारी निभा रही है। उसी सहनशीलता के लिए घर पर कम आंकी जाती है, जिसके बलबूते पर परिवार की नींव रखी जाती है।