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उद्विग्न विरक्त बर्फ से तन के पीछे जो शिथिल उष्णत

उद्विग्न विरक्त बर्फ से तन के पीछे जो 
शिथिल उष्णता है तुम्हारे मन की, 
मैं जानता हूं उसे।
सच कहूं तो, उससे मेरे मन का पाखी रोज 
दाने-पानी की अपेक्षा रखता है। 
तुम्हारे रुप को निहार-निहार 
कर अपने पंख थका देता है। 
पंख इसीलिए थकते कि कोई भी कोण से 
दर्श की मीमांसा बची ना रहे। 

✍️caption तुम्हारा रुप
_________
उद्विग्न विरक्त बर्फ से तन के पीछे जो शिथिल उष्णता है तुम्हारे मन की, मैं जानता हूं उसे।
सच कहूं तो, उससे मेरे मन का पाखी रोज दाने-पानी की अपेक्षा रखता है। तुम्हारे रुप को निहार-निहार कर अपने पंख थका देता है। पंख इसीलिए थकते कि कोई भी कोण से दर्श की मीमांसा बची ना रहे। 
बहुत बिचारा सा बन जाता है रह-रह कर, क्योंकि तुम्हारा सौंदर्य अप्रतिम कांति लिए निर्मल-निश्च्छल सी आभा उत्सर्जित करता है जो कि दिन के पहर के साथ तेज और मद्धम होती रहती है। इसका अस्तित्व पूर्णतया वश में करना
उद्विग्न विरक्त बर्फ से तन के पीछे जो 
शिथिल उष्णता है तुम्हारे मन की, 
मैं जानता हूं उसे।
सच कहूं तो, उससे मेरे मन का पाखी रोज 
दाने-पानी की अपेक्षा रखता है। 
तुम्हारे रुप को निहार-निहार 
कर अपने पंख थका देता है। 
पंख इसीलिए थकते कि कोई भी कोण से 
दर्श की मीमांसा बची ना रहे। 

✍️caption तुम्हारा रुप
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उद्विग्न विरक्त बर्फ से तन के पीछे जो शिथिल उष्णता है तुम्हारे मन की, मैं जानता हूं उसे।
सच कहूं तो, उससे मेरे मन का पाखी रोज दाने-पानी की अपेक्षा रखता है। तुम्हारे रुप को निहार-निहार कर अपने पंख थका देता है। पंख इसीलिए थकते कि कोई भी कोण से दर्श की मीमांसा बची ना रहे। 
बहुत बिचारा सा बन जाता है रह-रह कर, क्योंकि तुम्हारा सौंदर्य अप्रतिम कांति लिए निर्मल-निश्च्छल सी आभा उत्सर्जित करता है जो कि दिन के पहर के साथ तेज और मद्धम होती रहती है। इसका अस्तित्व पूर्णतया वश में करना
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