सहारा को ! खुद बेसहारा होता देखा ज़माना कभी मुखातिब होते थे, दीन दबंग और राणा सब तो थे! क्यों छलका संस्कारों का पैमाना ना पुत्र आए न लाशें ली पौत्र को पड़ा आना पुत्र से पौत्र भले जिसने अपना कर्म पहचाना वक्त पर बेसहारा देखा, "सहारा" को ज़माना खोजते रहे पाप कि पोटली, जो ले था जाना कैसी दौलत कैसा तृष्णा खुद रूह न पहचाना अब भी वक्त है आँखें खोलों ऐ सोया ज़माना क्या सत्य स्वीकारेंगे, हमें खुली हाथ है जाना लेखक -प्रमोद मित्र ©अनुषी का पिटारा.. #GoldenHour #Sahara #अनुषी_का_पिटारा