भाग-१ कहाँ कोई निकला था घर से संबिधान बचाने को, जब बिंदी चूड़ी बिलख रही थी अपनी मान बचाने को। लख पण्डित की चोटी जल गई; फूल सिमट गए कलियों में, ऐसी आँधी नहीं दिखी थी; तब शाहीनबाग की गलियों में। क्यों चाँद तक सन्नाटा था, ख़ामोशी सितारों में, नहीं छप सका एक आना भी, दिल्ली के अखबारों में। कश्मीरी हर बाग उजर गया; क्यों चुप्पी थी डलियों में, ऐसी आँधी नहीं दिखी थी; तब शाहीनबाग की गलियों में। क्यों बरसों तक रोते रह गए; जल गया जिनका डेरा था, डर, पीड़ा, पानी ने आकर जिन आँखों को घेर था। जब बिखरे गेहूं के दाने; वो ढूंढ रहे थे खलियों में, ऐसी आँधी नहीं दिखी थी; तब शाहीनबाग की गलियों में। #शाहीनबाग kavya Kumari Khushbu Biru B Positive 🐦Awaaz-e-shayari (Imran Hussain) Lumbini Shejul