जाड्यं धियो हरति सिंचति वाचि सत्यं, मानोन्नति दिशति पापमपाकरोति । चेतः प्रसादयति दिक्षु तनोति कीर्तिं, सत्सङ्गति कथय किं न करोति पुंसाम्।। सज्जनों की संगति से व्यक्ति का केवल उपकार ही होता है, इसी कथ्य को कवि ने बड़ी सुन्दरता से इस श्लोक में बताया है। सत्संगति से बुद्धि की जड़ता और अज्ञानता दूर होती है, सज्जनों के साथ रहने से वाणी सदैव सत्य भाषण ही करती है। इसी से समाज में उसे सम्मान एवं प्रतिष्ठा प्राप्त होती है और उसके कारण वह उन्नति करता है। यह तर्क पद्धति के द्वारा सत्संगति की सुन्दर व्याख्या है। इस बात में कोई दो राय नहीं कि यदि मनुष्य सज्जन व्यक्ति के साथ रहता है, उसके साथ उठता-बैठता है तो उसके गुण-व्यवहार भी सीखता है। इससे स्पष्ट है कि वह किसी भी प्रकार की अनीति एवं पापकर्म से भी दूर रहता है। अनुचित कार्य न करने एवं उचित एवं अच्छे कार्य करने से उसे जो प्रशंसा मिलती है, उससे वह प्रसन्न रहता है और उसके कार्यों की प्रशंसा से उसका यश चारों दिशाओं में फैलता है। सत् के दो अर्थ होते है 1परमात्मा 2सज्जनव्यक्ति, इन दोनों ही से जीवन में उन्नति होती है। पहला तो जीवन का स्रोत है एवं दूसरा मृत्यु से रहित जीवन का प्रेरक है