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बड़ा बे-सब्र निकला दिल, गहराईयाँ हमेशा देखता रहा स

बड़ा बे-सब्र निकला दिल, गहराईयाँ हमेशा देखता रहा
सुकून छोड़ दिल-ए-नादाँ, तन्हाईयाँ हमेशा देखता रहा

सत्ह जो न मिली दर्द-ए-ज़िगर की तो, बे-चैन रहता है
मझदार में रह कर पागल, रिहाईयाँ हमेशा देखता रहा

ख़ुदी में बाज़ार लगा कर हर्फ़-ग़ाह का, नग़्में बुन‌आता
मेले है अंदरूनी पर, ऐ  ख़ामोशियाँ हमेशा देखता रहा

अंदाज़ से इसी बे-गाने हुए, हम-दर्द जो रहते थे कभी
इल्म हुआ तो अंदरूनी, ऐ ख़ामियाँ हमेशा देखता रहा

वहीं ख़्वाब-ओ-ख़्याल पसंद है, जो अधूरे रहेंगे हमेशा
आपबिती में उज्र से सभी, जुदाईयाँ हमेशा देखता रहा

बे-दस्त है सब कुछ, जो अस्मत हुआ करते थे दिल की
ख़ाक कराया सभी जभी से उचाईयाँ हमेशा देखता रहा

©विशाल पांढरे
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