कुछ कह न सका, कुछ.. हुकुम भी तो न था मेरे भी हाथों में .... क्षणिकता थी मेरे भी पैरों में... लज्जा और विषमता थी । पर तुम्हें कुछ तो नहीं था ? हाथ में दो हाथ थें कहने, सुनने के बहुत से बात थे। उसे में भी देखकर आई... जिसमें न होने की उम्मीदें थी। ख़त.... तो थे , जज़्बात, ज़िन्दगी और कुछ मौतें थी... उन्माद के जन्म पर... नयी सवेरा थी जो हो चुकी इस रश्म का.... रश्मिरथी थी। तो, हम ने सोचा कि... एक जात को खत्म किया जाएं बारिश ए इश्क़ में..... दिल को फिर से धोया जाएं.... पर जो कहें कि, .... खनक ए पायल पसंद है तुम्हें... उस हवस के आंख का भी बड़े दिल से स्वागत है... मैं... ? पन्नों में लिखे कहानी का किरदार हूं निभाएं गये रंगमंचों का कलाकार हूं.... मुझे भी... किरदार "राम" के मिलें थे.... पर , मैं तो जीता-जागता... एक रावण हूं..!! कहा जाता है हम से... "कुछ अच्छा लिखों " कुछ न लिख सको तो, मेरे हक़ में लिखों... लिखों की.... मैं राम हूं, मैं ही कृष्ण हूं.... पर, कुछ लिख न सा..... न राग, न रागिनी...!! सिद्धांत ✍️ ©Dev Rishi प्रेम कविता, उसके हवाले से!!