हां! मैं डर जाती हूं मैं निसहाय निशब्द सी, शब्दों के बीच, अटक-सी जाती हूं, हां मैं बात, पूरी नहीं कर पाती हूं, मैं लहज़ा और शब्दों की, उधेड़-बुन में खो जाती हूं हां! मैं डर जाती हूं। कदम थरथराते हैं, जब घर से बाहर को जाती हूं, लोगों की नज़र को देख, मैं खुद को असहाय पाती हूं, हां! मैं डर जाती हूं। किसी के सामने जाने से पूर्व, मैं सहम-सी जाती हूं, हां रोज रात तकिया भीगता हैं मेरा, रोज मैं एक कोने में, सिमट कर रह जाती हूं हां! मैं डर जाती हूं तेजस्विनी ✍️ #Nojoto #writing #Poetry