किनारे जब घुल-घुलकर लहरों से मिलते है तब लहरों को सौ बार उछलते देखा है मैने कोमल गुलाब की पंखुडियों को चुमकर शबनम की बूँदों को संभलते देखा है... ( शेष कविता अनुशीर्षक में...) सौंदर्य में सीमटा प्रेम है या प्रेम ही सौंदर्य है ये प्रश्न हर बार मन में कौंध जाते है महँक उठता है दिल का हर कोना-कोना जब स्वयं को हम प्रकृति के समीप पाते है मैने देखा है बहारों के अंजुमन में ठहरकर अल्हड़ से भौरों को फूलों में छुपते हुए नन्हीं-नन्हीं कलियों को बसंत में खिलने पर