आज़ादी की मशाल पूछा करते थे खेत, पूछती थी झोपड़ियाँ कब तलक लुटते रहेंगे लोग मेरे देश के ? आज़ादी की ले मशालें चल पड़े थे लोग मेरे गाँव के अब अंधेरा न छाएगा जाग चुके थे गाँव के चीखा करती थीं रुकावटें , ठोकरें बड़ी थीं राह में बेड़ियाँ खन-खनक रही थीं हाथों में मेरे देश के जो सुबहें बेरंग थीं जो सहर फीकी लगती थीं रंग केसरिया भर दिया लोगों ने मेरे देश के सर पे बांधा था कफ़न, पर हाथों में तलवार न थी सब गुरिल्ला बन गये थे, लोग मेरे देश के ले मशालें चल पड़े थे, लोग मेरे देश के। ९९/३६५@२०२२ आइए, हम सब भारतीय मिलकर देश में आज़ादी का अमृत महोत्सव मनाएँ। आजादी की मशाल जलाएँ । original yreeta-lakra-9mba #15Aug #India