#सुपुर्द-ए-ख़ाक मेरी लाश रखी है मेरे घर के आंगन में ; ख़ामोशी का आलम है घर की गलियों में , खड़े हैं अपने ही लोग मुझे सजाने को ; देखते थे जो कल तक तिरछी निगाहों से । पूरी तैयारी के साथ जुटे हैं मेरे रिश्तेदार ; मेरी लाश, अपने कंधों पर उठाने को । जो कल तक सोचा करते थे तरकीबें भरी महफ़िल में मुझे नीचे गिराने की । आज लाश हो गया तो फ़िक्र करते हैं , ज़िन्दा था; जब तक, झांका नहीं किसी ने । तारीफ़ कर रहें हैं आज मेरे ही पड़ोसी , जो कल तक कमियां गिनाते रहे मुझे । ख़ुशामद करने में मसरूफ़ हैं नये चेहरे , मेरी लाश को फूलों का हार पहनाकर । धोखे़बाज़ भी शामिल हैं इस भीड़ में , मेरी लाश में घिनौने हाथ लगाने को । आंखो में अपने फ़रेब के आंसू लिए , काफ़िले में हैं लोग दग़ाबाज़ ज़माने के । सूखी लकड़ियों इकठ्ठी हैं , बस तैयारी है दहकती आग में मेरी लाश जलाने की । पल भर में मेरे ज़िस्म के चिथड़े हो गए , धुआं - धुआं बनकर उड़ गई मेरी लाश । सुपुर्द-ए-ख़ाक होकर राख़ हो गया मैं मिट्टी में मिल गया ज़िन्दगी भर का गुरूर । ©Mayank Kumar 'Aftaab' #OneSeason #सुपुर्द-ए-ख़ाक मेरी लाश रखी है मेरे घर के आंगन में ; ख़ामोशी का आलम है घर की गलियों में , खड़े हैं अपने ही लोग मुझे सजाने को ; देखते थे जो कल तक तिरछी निगाहों से । पूरी तैयारी के साथ जुटे हैं मेरे रिश्तेदार ;