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अंधेरे को चीरती रोशनी ख़ुद अंधेरा हो जाती है जब रात

अंधेरे को चीरती रोशनी
ख़ुद अंधेरा हो जाती है
जब रात के बाद
सवेरे का कोई ज़िक्र ना हो
 ऑंखें मूंदकर अंधा होने का ढोंग
रचाने वाला इंसान 
शायद भूल जाता है
कि प्रकृति जिसे अंधत्व देती है 
उसे आंतरिक संवाद का
सौभाग्य भी देती है
पर वाह रे अभागे मानव!
तू स्वरचित अंधत्व का
क्षणिक आनंद भोगना चाहता है
तो तुझे स्वयं से संवाद का सुख
कभी नहीं मिल पाएगा 
ख़ामोश आवाज़ों को वो कान क्या सुनेंगे 
जो मशीनों के शोर के आदी हो गए हैं!
सच की कहानी वो होंठ क्या कहेंगे
जो गुनेहगारों के फ़रियादी हो गए हैं!

©Sarita Malik Berwal #अंधत्व
अंधेरे को चीरती रोशनी
ख़ुद अंधेरा हो जाती है
जब रात के बाद
सवेरे का कोई ज़िक्र ना हो
 ऑंखें मूंदकर अंधा होने का ढोंग
रचाने वाला इंसान 
शायद भूल जाता है
कि प्रकृति जिसे अंधत्व देती है 
उसे आंतरिक संवाद का
सौभाग्य भी देती है
पर वाह रे अभागे मानव!
तू स्वरचित अंधत्व का
क्षणिक आनंद भोगना चाहता है
तो तुझे स्वयं से संवाद का सुख
कभी नहीं मिल पाएगा 
ख़ामोश आवाज़ों को वो कान क्या सुनेंगे 
जो मशीनों के शोर के आदी हो गए हैं!
सच की कहानी वो होंठ क्या कहेंगे
जो गुनेहगारों के फ़रियादी हो गए हैं!

©Sarita Malik Berwal #अंधत्व