चलते जा रहा हूँ इन राहों पर मैं, ना जाने कब तक चलूँगा। मंजिल की तलाश में चलते ही रहूँगा, या फिर उसे पा कर भी कभी रुकूँगा। ना जाने कब तलक मिलेगी मेरी मंजिल मुझे, इतना तो बता दे ऐ खुदा, कब तक चलूँगा। और आलम यह है मंजिल मेरी खुद मुझे पता नहीं, कोई पूछेगा जाना कहाँ है बता भी न सकूँगा। आखिर कब तक चलूँगा, आखिर कब तक चलूँगा। लेखक - अंकित पालीवाल आखिर कब तक चलूँगा