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न जाने ये दौर है कैसा, सब कुछ पैसा ही लगता।। अस्

न जाने ये दौर है कैसा,
सब कुछ पैसा ही लगता।। 
अस्पताल में बिन पैसों के,
है गरीब घुट-घुट मरता।। 
कोई दो रोटी पाने को,
अपना तन है सेंक रहा।। 
कोई महज दिखावे में,
कूड़े में भोजन फेंक रहा।। 
ऊँचे-ऊँचे भवन बने,
कोई फुटपाथ ही पाया है।। 
मानव-मानव शत्रु बने,
मानवता-तरु कुम्हलाया है।। 


@poetryofsoul

©Shashank मणि Yadava "सनम"
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