सभी दरवाज़े जब बंद कर लिए जाएंगे। फिर मैं और तन्हा रातें सुनसान सड़क पर, अकेले ठहलेंगें बातें करेंगें। शायद कुछ देर तलक़, क्योंकि दिन भर की भाग दौड़ के बाद लाज़िम है मैं जल्दी थक जाऊँगा, और बैठना चाहूंगा, हा उसी जगह जहाँ हम गुफ्तगू किया करते थे, ख़ुद की ज़िन्दगी के बाबत शायद जो सिर्फ़ बातें थी। क्योंकि असल ज़िंदगी तो कुछ और ही है, ख़ैर मेरे बैठ जानें से मेरी तन्हाई भी नाराज़ हो जाएगी, और चली जाएगी मुझें अकेला छोड़ के, और मैं बेबस होकर देखता रहूँगा उसे, जहाँ तक वो नज़र आएगी अंधेरों में, शायद वो पलटकर भी न देखें, क्योंकि हो सकता उसके भी उसूल हो, ठीक मेरी तरह जाते वक़्त पलटकर न देखना। और शायद फ़िर मैं करूँगा इंतजार उसका ताउम्र, जो लौटकर कभी नहीं आनेवाला। जो लौटकर कभी नहीं आनेवाला।