लड़कियां, कुछ भी ज़ाया (बर्बाद) नहीं जाने देतीं। वो सहेजती हैं। संभालती हैं। ढकती हैं। बाँधती हैं। उम्मीद के आख़िरी छोर तक। कभी तुरपाई कर के। कभी टाँका लगा के। कभी धूप दिखा के। कभी हवा झला के। कभी छाँटकर। कभी बीनकर। कभी तोड़कर। कभी जोड़कर। देखा होगा ना ? अपने ही घर में उन्हें खाली डब्बे जोड़ते हुए। बची थैलियाँ मोड़ते हुए। सबेरे की रोटी शाम को खाते हुए। बासी सब्जी में तड़का लगाते हुए। दीवारों की सीलन तस्वीरों से छुपाते हुए। बचे हुए से अपनी थाली सजाते हुए। फ़टे हुए कपड़े हों। टूटा हुआ बटन हो। फंफून्दी लगा अचार हो। सीले हुए पापड़ हों। घुन लगी दाल हो। गला हुआ फल हो। मुरझाई हुई सब्जी हो। या फिर तकलीफ़ देता " रिश्ता " वो सहेजती हैं। संभालती हैं। ढकती हैं। बाँधती हैं। उम्मीद के आख़िरी छोर तक... इसलिए , याद रखना ! वो जिस दिन मुँह मोड़ेंगी तुम बर्बादी देखोगे।