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दो-चार बरस लड़खड़ाई, फिर खड़ी हो गई बाबा आप क्या गए,

दो-चार बरस लड़खड़ाई, फिर खड़ी हो गई
बाबा आप क्या गए, मैं बड़ी हो गई
कभी बच्चों सी मैं भी, हँसती थी मुस्कुराती थी
आप थे तो कोई बला, मुझे छू नहीं पाती थी
घर की सारी ज़िम्मेदारी, अपने कंधों पर उठाती हूँ
बाबा आप की तरह, अब मैं भी दफ़्तर जाती हूँ
मेरी सारी ख़्वाहिशों को, पल में मुक़म्मल करते थे
मैं जुगनू अगर मांगू, आप चाँद हाथ पर रखते थे
वो अपने हर फ़र्ज़ से, मुँह मोड़ कर चले गए
कहती है मेरी माँ, बाबा ख़ुदा के घर चले गए

©Trishika Dhara
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