ढल रही है यह धरा घनघोर तम की छाव से। ओझल सि लिपटी कोई बेड़ी जकड़े मनुज को पाव से।। सत्य अब जख्मी सा होकर कैद होने है लगा। चंद सिक्कों की लालसा में डकैत अब होने लगा।। मच रहा है शोर हर क्षण झूठ की हर जीत का। उल्लास में है हर प्राणी इस अनोखी रीत का।। गिर रहा है श्वेत पंछी धूर्त रण की बाह से। बह रही है रुधिर तटिनी असुर युग के प्रभाव से।। हो रहा नरसंहार हरदिन मौनता और धीर से । अंजान होकर जन है सोया विवश बंध जंजीर से ।। दुर्दशा इस जग की ।