इस बार मेरे घर में जलेंगे कच्ची मिट्टी के दिये/दीप जिसे मेरी माँ ने माजबूरीबस बनाई है दिवाली के लिए। वो दीप खरीद सकती थी कुम्हार से पैसे देकर पर वो 'पैसे' मेरे लिए दिल्ली भेजी ताकि मैं खुश रहूँ,कोई तकलीफ न हो मैं नासमझ तो नहीं पर बुज़दिल जरूर हूँ की घर की हालात जानते दिल्ली आ बसा किरायों के मकान में । जो घर से लाये थे कपड़े अब वो फट चुके हैं उसे अब सिलना भी मुनासिब नहीं सर्दी भी आ धमकी वक़्त से पहले ,और अपना जोर मुझपर आजमाने लगी है। बेहतर है कि रात कट जाती है बंद कमरों में ,बिना ठण्ड के पर हर सुबह जद्दोजहद होती है ठण्ड और मुझमे इसबार मेरे घर में जलेंगे कच्ची मिट्टी के दीये जिसे मेरी माँ ने मज़बूरी बस बनाई है दिवाली के लिए । पिताजी का फोन आया था कह रहे थे की लौट जाओ साथ होंगे तो परेशानियां भी कम होंगी मिल बाँट सकेंगें हर ग़म को ये खामोशियाँ भी तो कम होगी एक बात और बेटा की मिटटी खोदते बखत तेरी माँ के ऊँगली कटे हैं पर दियों को भलीभांति स्वरूप दी वो भी एक कुशल कुम्हार की तरह इस बार मेरे घर में जलेंगे कच्ची मिट्टी के दीये जिसे मेरी माँ ने मजबूरी बस बनाई है दिवाली के लिए ।