जब हम किसी रिश्ते की शुरुवात में होते है या रिश्ता बना रहे होते है तो बिलकुल एक शिशु की तरह होते है जिसे कुछ नही मालूम होता है सिवाय स्नेह के स्पर्श और सहज अस्तित्व के.... जिसमे भरोसा उम्मीद या अहमियत का कोई महत्व नहीं होता, सिर्फ एक touch (महसूस) होता है की एक रिश्ता है हमारा, धीरे धीरे हम उस रिश्ते के साथ आगे बढ़ते है और समझते है रिश्ते की अहमियत फिर सीखते है भरोसा करना और फिर जताने लगते है अपनी उम्मीदें ! जैसे जैसे हमारा रिश्ता अपने वक्त के साथ आगे बढ़ता है वैसे ही हम समझते है हम परिपक्व हो गए है अपने रिश्ते के.... और छोड़ने लगते है वो शरारते जोकि रिश्तों के शुरुवाती दौर में होती थी, कम कर देते ध्यान देना, वक्त देना, या ख्याल रखना हर उस छोटी बड़ी बात का ... क्यूंकि अब तो समझ जाते है हम अपने रिश्ते में मेच्योर हो गए है, हमे एक दूसरे को समझने लगे है उस समझदारी वाले सफर के हम अपना वो बचपन खो देते है , और अपेक्षाओं में कहते है अब तो हम समझते है न एक दूसरे को.... ये समझना और मैनेज करने के चक्कर में हमारा मेच्योर रिश्ता बस चलने लगता है ... चलते चलते एक दिन किसी रास्ते उनमें से एक थक कर बैठ भी जाता है और दूसरा चल रहा होता है इसी धुन में कि वो तो पीछे से चलकर आएगा ही, आवाज लगाएगा ही.... रिश्तों की मजबूत खिड़कियों में अक्सर समझदारी वाली दीमक लग ही जाती है, जो धीरे धीरे खोखला करने लगती है अपने वजूद को, फिर खिड़की हटाकर एक दिन दीवाल चुन दी जाती है क्यूंकि ज्यादा समझदार लोग अब घरों में खिड़कियां पसंद भी तो नहीं करते ।। ©पूर्वार्थ #रिश्तें