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क्या मार ही डालोगे।। मान ली हार, क्या मार ही डालो

क्या मार ही डालोगे।।

मान ली हार, क्या मार ही डालोगे।
छोड़ा घर-बार, क्या मार ही डालोगे।

छीना ख़्वाब और सांसें भी बंदी हैं,
ले तो ली संसार, क्या मार ही डालोगे।

मैं हूँ झुका, तेरे कदमों में पड़ा हूँ मैं,
बने तो सरकार, क्या मार ही डालोगे।

तुम हो स्वामी, तुम ही तो मालिक मेरे,
किया है स्वीकार, क्या मार ही डालोगे।

तुम सबल हुए, मैं तो रहा निर्बल निरीह,
कैसी है तकरार, क्या मार ही डालोगे।

दर्द छुपाये फिरते हैं, शिकवा कोई नहीं,
हैं रोते जार जार, क्या मार ही डालोगे।

ज़िन्दगी ने मोहलत ही दी कहाँ है हमे,
न कोई है निगार, क्या मार ही डालोगे।

तुम हो अपने, हो हमसाया तुम मेरे,
मैं कहाँ अय्यार, क्या मार ही डालोगे।

कुछ हसीन पल दामन में मेरे भी हों,
उम्र दी गुज़ार, क्या मार ही डालोगे।

बन्द कमरे हूँ चीखता चिल्लाता मैं तो,
कौन सुने गुहार, क्या मार ही डालोगे।

हम खड़े, वहम का बाजार गर्म था,
फूटा ये गुबार, क्या मार ही डालोगे।

कुछ फिक्र तो कर लूं अपनी भी,
दिन मेरे चार, क्या मार ही डालोगे।

यहीं बैठ किनारे मैं तो हूँ तटस्थ पड़ा,
कब हुआ पार, क्या मार ही डालोगे।

आंसु ही पीता रहा, दबा मैं दर्द सारा,
कैसी है चीत्कार, क्या मार ही डालोगे।

मैं भृमित, खुली आंख ही तो सोया हूँ,
कब हुआ बेदार, क्या मार ही डालोगे।

©रजनीश "स्वछंद" क्या मार ही डालोगे।।

मान ली हार, क्या मार ही डालोगे।
छोड़ा घर-बार, क्या मार ही डालोगे।

छीना ख़्वाब और सांसें भी बंदी हैं,
ले तो ली संसार, क्या मार ही डालोगे।
क्या मार ही डालोगे।।

मान ली हार, क्या मार ही डालोगे।
छोड़ा घर-बार, क्या मार ही डालोगे।

छीना ख़्वाब और सांसें भी बंदी हैं,
ले तो ली संसार, क्या मार ही डालोगे।

मैं हूँ झुका, तेरे कदमों में पड़ा हूँ मैं,
बने तो सरकार, क्या मार ही डालोगे।

तुम हो स्वामी, तुम ही तो मालिक मेरे,
किया है स्वीकार, क्या मार ही डालोगे।

तुम सबल हुए, मैं तो रहा निर्बल निरीह,
कैसी है तकरार, क्या मार ही डालोगे।

दर्द छुपाये फिरते हैं, शिकवा कोई नहीं,
हैं रोते जार जार, क्या मार ही डालोगे।

ज़िन्दगी ने मोहलत ही दी कहाँ है हमे,
न कोई है निगार, क्या मार ही डालोगे।

तुम हो अपने, हो हमसाया तुम मेरे,
मैं कहाँ अय्यार, क्या मार ही डालोगे।

कुछ हसीन पल दामन में मेरे भी हों,
उम्र दी गुज़ार, क्या मार ही डालोगे।

बन्द कमरे हूँ चीखता चिल्लाता मैं तो,
कौन सुने गुहार, क्या मार ही डालोगे।

हम खड़े, वहम का बाजार गर्म था,
फूटा ये गुबार, क्या मार ही डालोगे।

कुछ फिक्र तो कर लूं अपनी भी,
दिन मेरे चार, क्या मार ही डालोगे।

यहीं बैठ किनारे मैं तो हूँ तटस्थ पड़ा,
कब हुआ पार, क्या मार ही डालोगे।

आंसु ही पीता रहा, दबा मैं दर्द सारा,
कैसी है चीत्कार, क्या मार ही डालोगे।

मैं भृमित, खुली आंख ही तो सोया हूँ,
कब हुआ बेदार, क्या मार ही डालोगे।

©रजनीश "स्वछंद" क्या मार ही डालोगे।।

मान ली हार, क्या मार ही डालोगे।
छोड़ा घर-बार, क्या मार ही डालोगे।

छीना ख़्वाब और सांसें भी बंदी हैं,
ले तो ली संसार, क्या मार ही डालोगे।