उधार हूँ मैं- प्रात से प्रत्येक पल मैं मेघ के गढ़-गढ़ रहा हूँ प्रात की जो रात बीती उसमें अम्बर चढ़ रहा हूँ प्रात में थी निशा निष्ठुर, उसके संग कुछ खेलता मैं प्रात की जो बात बीती उसकी नीचे जड़ रहा हूँ, रैन के कुछ पोखरों में,माटी की कुछ कोपलों में बैन मीठे मधुर कोकिल के सुहाने सुन रहा हूँ