यहां कोई भी नहीं, यहां कौन रहा करता था आखरी कदम न जाने, किसके यहां पड़े थे... उजाड़ सा उजड़ा है, जहां बस्ती बसा करती वो चौखट वो मकान, यहां खुले पड़े हुए थे... न लौटने की उम्मीद है, न धुन है वापसी की छोड़ के अपना घरबार, कैसे वो चल दिए थे... तितलियों की भीड़, भंवरे पंछी के शोर थे खुशबू नहीं वहां अब, गुलिस्तान हुआ करते थे... निशानियों ने अब भी, जकड़कर यूं रखा था तेरे होने से न होने तक का, हिसाब लिखे हुए थे... बिखरा हुआ उसपर अब, हक और किसी का था लौटने के इंतजार में अब, कोई बचे नहीं हुए थे... ©Swati kashyap #कोई_नहीं