*_पंखुड़ी_* सारी इंसानियत को तोड़ के, निचोड़ के वो आए थे जो थी फूल सी अधखिली सी पंखुड़ी उसे वो दरिंदे नोचने को आए थे रोती रही वो बिलखती रही छटपटाती छूटने को गुड़िया रानी तड़पती रही न दिल पसीजा रोजेदारों का न अल्लाह की याद आई हवस थी बस निगाहों में शर्म ओ हया थी बेच खाई आग बुझी जब हवस की तो तिल तिल कर टुकड़े किए कुछ कर न सकी पंखुड़ी चली गई सपने लिए ये समाज करता है क्यूं इज्ज़त का ये ढोंग धतूरा जब फूल सी बच्ची पल पल बिखरे कोई समेट न पाए उसको पूरा क्या सोचते हो बदल डालो गर बदलना पड़े संविधान को कोई पंखुड़ी फ़िर न हो शिकार बदल डालो इस विधान को - कवि अतुल जौल्या 'Neilson' #पंखुड़ी #कविता #poetry