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जब 'पहाड़' पर मैं रहता था, सुबह - सबेरे उठ जाता था,

जब 'पहाड़' पर मैं रहता था,
सुबह - सबेरे उठ जाता था,
'रात' का अनुभव बाँट रहे,
पक्षी-गण का कलरव सुनता था।। 

कोयल पंचम स्वर गाती थी,
उठो-उठो की ध्वनि आती थी,
मुर्गा देकर बांग बराबर,
सुबह हो गयी, बतलाता था।। 

गाय बुलाती थी, आ जाओ,
दूध भरी बाल्टी ले जाओ,
गौरैया, दरवाजा खुलते ही,
देहली पर, मँडराती थी।। 

कितने न्यारे दोस्त थे अपने,
शहर में कोई नहीं आता,
जब भी लेकिन गाँव में जाओ,
हर कोई मिलने आ जाता।।

©Tara Chandra #शहर_से_गाँव
जब 'पहाड़' पर मैं रहता था,
सुबह - सबेरे उठ जाता था,
'रात' का अनुभव बाँट रहे,
पक्षी-गण का कलरव सुनता था।। 

कोयल पंचम स्वर गाती थी,
उठो-उठो की ध्वनि आती थी,
मुर्गा देकर बांग बराबर,
सुबह हो गयी, बतलाता था।। 

गाय बुलाती थी, आ जाओ,
दूध भरी बाल्टी ले जाओ,
गौरैया, दरवाजा खुलते ही,
देहली पर, मँडराती थी।। 

कितने न्यारे दोस्त थे अपने,
शहर में कोई नहीं आता,
जब भी लेकिन गाँव में जाओ,
हर कोई मिलने आ जाता।।

©Tara Chandra #शहर_से_गाँव
tarachandrakandp6970

Tara Chandra

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