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को नजरअंदाज कर देना इन्सान हूँ फ़रिश्ते जैसी उम्म

को नजरअंदाज कर देना
इन्सान हूँ फ़रिश्ते जैसी 
उम्मीद न कर यूँही  
सबसे बड़ी विडंबना तो यह है कि इस कोरोना महामारी में किसी दूसरे विषय पर लिखूंगा तो यह मानवता, करुणा और दरियादिली के साथ अन्याय होगा, फिर भी ह्रदय नहीं माना। 
 पता नहीं कैसे अद्भुत, विरले मनुवंशज इस समय प्रेम , प्रेम पीड़ा , कल्पना , हास्य, अध्ययन,  राजनीति , विच्छेद,  आकर्षण - अनाकर्षण , कपोल - कल्पना पर कलाकारी दिखाकर मिट्टी पलीत कर लेते हैं । इन हरे-भरे तक तर्कबुद्धियों और बुद्धिजीवियों की भीड़ में मैं स्वयं को असहाय और मंदबुद्धि मानता हूँ।
 हालांकि मानना जैसा कुछ है नहीं , कि अन्य से तुलना करके ही स्वयं को परिभाषित किया जा सके मैं स्वयं का विवेचन आप ही कर सकता हूँ।
 जिंदगी के इन 18 - 20 सालों में , मैंने स्वयं को श्रेष्ठ ,  तुलनात्मक , आदमसंयमी, धीर - गंभीर और मानव श्रेष्ठ ही माना है , वहीं विपरीत में मेरे पिताजी और दादाजी ने हमेशा ही मुझको अल्पव्यवहारिक , पागल,  जड़बुद्धि,  बेवकूफ और हेय जैसे गोबरीय गुणों से नवाजा ।
कहते हैं घर के बड़ों की हर बात माननी चाहिए क्योंकि वह जो कुछ भी कहते हैं और करते हैं , वह हमारे भले के लिए ही करते हैं पर मैंने नहीं मानी । 
इन गोबरिय स्वरूप उपमाओं से मेरा मन आत्मग्लानि से सराबोर हो उठता था।
को नजरअंदाज कर देना
इन्सान हूँ फ़रिश्ते जैसी 
उम्मीद न कर यूँही  
सबसे बड़ी विडंबना तो यह है कि इस कोरोना महामारी में किसी दूसरे विषय पर लिखूंगा तो यह मानवता, करुणा और दरियादिली के साथ अन्याय होगा, फिर भी ह्रदय नहीं माना। 
 पता नहीं कैसे अद्भुत, विरले मनुवंशज इस समय प्रेम , प्रेम पीड़ा , कल्पना , हास्य, अध्ययन,  राजनीति , विच्छेद,  आकर्षण - अनाकर्षण , कपोल - कल्पना पर कलाकारी दिखाकर मिट्टी पलीत कर लेते हैं । इन हरे-भरे तक तर्कबुद्धियों और बुद्धिजीवियों की भीड़ में मैं स्वयं को असहाय और मंदबुद्धि मानता हूँ।
 हालांकि मानना जैसा कुछ है नहीं , कि अन्य से तुलना करके ही स्वयं को परिभाषित किया जा सके मैं स्वयं का विवेचन आप ही कर सकता हूँ।
 जिंदगी के इन 18 - 20 सालों में , मैंने स्वयं को श्रेष्ठ ,  तुलनात्मक , आदमसंयमी, धीर - गंभीर और मानव श्रेष्ठ ही माना है , वहीं विपरीत में मेरे पिताजी और दादाजी ने हमेशा ही मुझको अल्पव्यवहारिक , पागल,  जड़बुद्धि,  बेवकूफ और हेय जैसे गोबरीय गुणों से नवाजा ।
कहते हैं घर के बड़ों की हर बात माननी चाहिए क्योंकि वह जो कुछ भी कहते हैं और करते हैं , वह हमारे भले के लिए ही करते हैं पर मैंने नहीं मानी । 
इन गोबरिय स्वरूप उपमाओं से मेरा मन आत्मग्लानि से सराबोर हो उठता था।